क्या हम मर गए हैं या हमारे अंदर की संवेदनाएं खत्म हो गई हैं, अगर ऐसा हैंतो फिर हमें इंसान कहलाने कोई हक नहीं हैं क्योंकि इंसान तो वो होता हैंजिसके अंदर भावनाएं होती हैं उसे सही गलत का पता होता है लेकिन नहीं हमइंसान नहीं है क्योंकि हमें यही नहीं पता कि सही क्या है और गलत क्या है? आज हमारे चारों ओर अराजकता का माहौल है, हर तरफ मौत का मंजर चलरहा है। हम कितने अजीब है न, कहीं बम विस्फोट होता है तो लगते हैं सरकारऔर सिस्टम को कोसने लेकिन खुद जब संगीन गुनाह करते हैं तो उसका समर्थन करते हैं। पिछले एक महीने सेहिन्दुस्तान की मीडिया में इज्जत के नाम पर हत्या का मुद्दा छाया हुआ है।
बात पत्रकार निरूपमा पाठक हत्या कांड की करते है जो सिर्फ इसलिए हुआक्योंकि नीरूपमा अपने घरवालों के खिलाफ किसी गैर जाति के लड़के से प्यारकरती थी । लेकिन सवाल ये उठता है कि इस सिस्टम के जन्मदाता कौन हैं? आखिर किससे पूछ कर ये नियम कानून बनाये गए हैं। जब सभी के खून कारंग एक यानी लाल होता है तो फिर जाति का रंग क्यों अलग हो जाता है? जबकोई बीमार होता है और अस्पताल पहुंचता हैं तो डाक्टर तो ये कभी नहीं कहताकि पहले अपनी जाति बताओ तब हम दवाई देंगे। सोचिए अगर अस्पतालों में बैठे डाक्टर ये सवाल करने लगे तोकितने लोगों का इलाज हो पायेगा।कहने को हम स्वतंत्र देश में रहते हैं जहां हम हर फैसले के लिए आजाद है तो फिर जब हम अपने बारे में फैसलालेते हैं तो उसे कभी धर्म तो कभी जाति तो कभी पैसे के नाम पर तिलांजलि क्यों दे दी जाती है? आखिर क्यों एकअच्छा बेटा या बेटी घरवालों की नजर में उस समय खलनायक या खलनायिका बन जाता हैं जब वो अपनी शादीका फैसला अपने मां-बाप या घरवालों के खिलाफ करता हैं। उस समय कहां चला जाता है उन घरवालों का वो प्यारजो बचपन से जवानी या बचपन से उस समय तक जब तक घरवालों को बच्चो के फैसले के बारे में पता नहीं होता, तब तक उमड़ता रहता है।
आखिर मौत से क्या ऐसे बच्चों के मां-बाप के दिलों को सकून मिल जाता है।बेटे-बेटियों को मौत के घाट उतारने के बाद घरवालों को कोर्ट-कचहरी करनामंजूर होता है लेकिन अपने बच्चों की खुशी मंजूर नहीं होती। आखिर अगर दोबालिग लोगों ने एक साथ जीवन बीताने का फैसला कर लिया है तो गलत क्याहै लेकिन नहीं हमारे तथाकथित समाज को ये मंजूर नहीं है। हमारे समाज केठेकेदार अपने बच्चों की मर्जी या फैसले की शहनाई और सिंदूर पर नहीं बल्किउनकी हत्या या और खून के रंगे अपने हाथों पर ज्यादा भरोसा करते हैं तभी तो मैनें कहा है कि हम मर चुके हैं, हम इंसान नहीं है, क्योंकि हमारी संवेदनाएं खत्म हो चुकी है। अब आप फैसला कीजिए क्या मै गलत हूं?


