Friday, November 19, 2010


मुहब्बत एक एहसासों की पावन सी कहानी [^] है, कहीं कबीरा दीवाना था कहीं मीरा दीवानी है, जीं हां दोस्तों वाकई में मुहब्बत एहसासों की ही कहानी है, इस बात को मैंने आज ही समझा है और शायद अगर हकीकत को आंखो से नहीं देखा होता तो यकीं कर पाना मेरे लिए भी मुश्किल होता। अगर आप भी इस रोचक सत्य से वाकिफ होंगे तो मेरी तरह आप भी कुमार विश्वास की लिखी इन लाइनों को यूं ही गुनगुनाने लगेंगे।

जो लोग बैंगलोर में रहते हैं वो जानते हैं कि BTM बस स्टॉप [^] पर सुबह से शाम तक किस तरह लोगों का मेला लगा रहता है, लोगों के पास पैर रखने की भी जगह नहीं होती है, खैर जो बैंगलोर को नहीं जानते हैं उनके लिए मैं बता दू कि बैगलोर जितना आईटी [^] कंपनियों और सदबहार मौसम के लिए मशहूर है उतना ही वो अपनी ट्रैफिक जाम के लिए बदनाम भी जिसमें BTM एरिया पहले नंबर पर आता है। अब तो आप ने इस एरिया की व्यस्तता का अंदाजा लगा ही लिया होगा।

इस व्यस्त इलाके से जब मैं गुजरती हूँ रोजाना तो मुझे एक व्यक्ति जिसकी उम्र लगभग 60- 70 वर्ष के बीच में होगी, बस स्टॉप पर खड़ा दिखायी देता है जो इलेक्ट्रानिक सिटी से आ रही बस का इंतजार करता रहता है, हर बस से उतरने वाले लोगो की ओर वो बहुत उत्सुकता से देखता है, उन्हीं में से एक बस में से एक बूढ़ी महिला जिसकी उम्र महज 55-60 के बीच में होगी, उतरती है, जिसे वो बूढ़ा व्यक्ति हाथ पकड़ कर रोड क्रास करवाता है और जब तक वो दूसरी और चली नहीं जाती है तब तक उसे देखता रहता है, यहां पर एक बात आप को बता दूं कि वो बुजुर्ग महिला नेत्रहीन है और शायद वो फूल बेचने का काम करती है क्योंकि वो जब बस से उतरती है तो उसके हाथ में फूल की डलिया होती है जिसमें कुछ मुरझाये और कुछ ताजे फूल होते हैं। रोज मैं इस तस्वीर को अपनी आंखो से देखा करती थी आज उस सच से मुखातिब होने का मौका मिला।

हुआ यूं कि रोज की तरह मैं आज भी अपने ऑफिस के लिए निकली, बस स्टैंड पर रोज की तरह काफी [^] भीड़ थी। रोजाना की अपेक्षा आज व्यस्तता ज्यादा थी राम जाने कारण क्या था लेकिन सच यही था। किसी तरह बस स्टैंड पर मैं पहुंची तो देखा कि जो बुजुर्ग व्यक्ति जिन्हें मैं रोज देखा करती थी आज मेरे ही बगल में खड़े हैं, चूंकि भीड बहुत ज्यादा थी और उनकी नजर पर उम्र हावी इसलिए उन्होंने दो बार मुझ से ही पूछ लिया कि बेटी क्या जो बस सामने से आ रही है वो इलेक्ट्रानिक सिटी की है, मैने कहां नही अंकल, जब उन्होंने दोबारा मुझ से पूछा तो मैंने बोला अभी नहीं आयी है अगर आती है तो मैं बता दूंगी, उन्होंने मुझे थैंक्स बोला और साथ ही पूछ भी लिया कि आप कहां से है? उनकी बातों से लग रहा था कि वो बहुत बीमार हैं, मैंने उनसे पूछ ही लिया कि क्या आप की तबियत ठीक नहीं है तो उन्होंने बोला कि उन्हे वाइरल फीवर हो गया है, डॉक्टर ने उन्हें बेड रेस्ट करने के लिए बोला है, लेकिन उन्हें किसी की वजह से यहां आना पड़ा।

धीरे-धीरे बातों का सिलसिला चलने लगा कि तभी इलेक्ट्रानिक सिटी की बस आ गई, मैनें बोला अंकल बस आ गई है, तो वो आगे बढ़ गये, करीब 10 मिनट बाद वो वापस आ गये लेकिन इस बार वो काफी परेशान लग रहे थे, मैंने सोचा शायद भीड़ की वजह से हैं, इसलिए पूछ ही लिया कि क्या आपको सीट नहीं मिली, तो उन्होंने बोला नहीं वो नहीं आयी, मैंने पूछा कौन, जवाब मिला वो जिसे मैं रोड क्रास कराता हूँ?
मैने बोला अच्छा वो फूल वाली आंटी तो उन्होंने आश्चर्य से मेरी ओर देखा और बोला क्या तुम उसे जानती हो, मैने बोला नहीं, बस रोज आपके साथ उन्हें देखती हूँ, इसलिए बोल दिया, वैसे उनका नाम क्या है, उन्होंने बोला मैं नहीं जानता, मैंने बोला मतलब तो उन्होंने कहा मैं नहीं जानता कि वो कौन है? कहां से आती है और कहां जाती है? उसे तो मेरी सूरत और आवाज भी नहीं पता क्योंकि वो ना तो वो देख सकती है और ना ही सुन सकती है। आज से 20 साल पहले मुझे इसी बस चौराहे पर रोड क्रास करते समय मिली थी, उसे जो भाषा आती है वो मुझे नहीं आती इसलिए हमारे बीच संवाद भी नहीं होते हैं।

मैं रोज मार्निंग वॉक करने के बाद यहां आता हूँ और उसे रोड क्रास कराता हूं, बस इसके आलावा मेरा कोई काम नहीं है। खैर लगता है कि आज शायद उसकी तबियत ठीक ना हो इसलिए वो नहीं आयी, कोई बात नहीं बेटा तुम अपने ऑफिस जाओं मैं फिर कल मिलूंगा इसी जगह इसी स्टॉप पर। कह कर वो चले गए और मैं सोचती रही कि इस रिश्ते को क्या नाम दूँ, जो सिर्फ एहसासों की कहानी है, यकीन नहीं हो रहा था इस वाकये पर लेकिन शायद आंखो देखी और कानों सुनी ना होती तो मुझे भी ये एक ख्याली वाकया लगता लेकिन यह सच है जिस पर यकीन करना पड़ेगा।

अब आपको इस बात पर यकीन है कि नहीं अपनी प्रतिक्रिया से हमें रूबरू करवाये।

Wednesday, November 17, 2010

मुझे तो लूट लिया मिलकर अशोक-राजा-कलमाड़ी ने .....

पहले चव्हाण, फिर कलमाड़ी और अब ए राजा का इस्तीफा, क्या बात है? क्या कहने , ऐसी सरकार क्या देखी है आपने जो पूरी तरह सरकारी काम [^] करती है , आप समझ ही गये होंगे कि सरकारी काम क्या होता है? पहले लूटों फिर कहो हम सुधारक है जनता की सेवा करने वाले लेकिन हुजूर कोई ये बताये कि मैं कहां जाऊं, मैं तो पूरी तरह बर्बाद हो चुका हूँ। रात-दिन काम करता हूँ तब तो कहीं जाकर पैसे मिलते हैं। गाढ़ी कमाई का कुछ हिस्सा सीधे तौर पर सरकार के खाते में चला जाता है, ताकि सरकार मेरी जरूरतों का ध्यान रखे और सरकार है कि उसे मैं इतने प्यारा हूँ कि बस वो बजा डालती है वो मेरा बैंड।
कभी उसके शागिर्द 'आदर्श घोटाला' करते हैं तो कभी खेल के नाम पर अपनी कोठियां बनवा डालते है। कुछ 'राजा' जैसे महान होते है जो कर डालते हैं देश का सबसे बड़ा घोटाला। और हमारी कांग्रेस [^] सरकार बड़े प्यार से अपने इन प्यारे सपूतों से इस्तीफे मांग लेती है और कहती है कि उन्हें मेरा पूरा-पूरा ख्याल है, इसलिए वो भ्रष्ट्र नेताओं से मुझे छुटकारा दिला रही है।

अब कोई उनसे पूछे कि जब ये घोटाले होते हैं तब उसे मेरा ख्याल क्यों नहीं आता, तब उसका प्यार कहां चला जाता है? वो इन सारे नेताओं से इस्तीफे क्यों मांगती है अगर उसे मेरा वाकई ख्याल है तो वो उनसे उन पैसों का हिसाब क्यों नहीं मांगती है जो मेरी गाढ़ी कमाई का हिस्सा है।

2g स्पैक्ट्रम घोटाले
से उजागर हुए राजा कल तक यही चिल्लाते रहे कि कुछ भी हो जाये इस्तीफा नहीं दूंगा, फिर अचानक उनका इस्तीफा सामने आ गया क्योंकि शायद उनसे यही कहा गया कि सिर्फ इस्तीफा ही तो मांग रहे हैं, पैसे तो नहीं मांग रहे, हिसाब तो नहीं मांग रहे, औऱ राजा साहब मुस्कुराते हुए बोले ठीक है 'करूणानिधि जी दे देता हूँ मैं इस्तीफा, जैसा आप कहें' और भाई साहब मंत्रालय को बॉय-बॉय कहते हुए निकल गये।

क्यों मैने कुछ गलत कहा क्या? यही तो हुआ है, सदियों से यही होता आया और आगे भी यही होता रहेगा, खुदा और इतिहास गवाह है, जब भी कोई घोटाला होता है, विपक्ष चिल्लाता है, सत्ता पक्ष सफाई देती है, जब उससे काम नहीं चलता है तो इस्तीफे ले लेती है, कभी-कभी कमेटी बन जाती है, जांच [^] कमेटी बैठती है, जब ज्यादा शोर मचता है तो रिपोर्ट जल्दी आ जाती है।

लेकिन कभी नहीं होता कि पैसों का हिसाब हो, कभी किसी नेता की पॉकेट से पैसे नहीं लिये जाते हैं जबकि सबको पता है कि इन भ्रष्ट्र नेताओं ने ही बिना डकार के मेरे पैसे खाये है, सरकार अपने इन फर्जी नुमाइदों को उनकी पोस्ट से हटाकर चिल्लाती है कि उसे मेरा ख्याल आ गया है लेकिन क्या उसके कोरे वादों से मेरे वो पैसे वापस आ जायेंगे जो मेरे बच्चों के निवाले से काट कर उसके नुमांइदों की तिजोरियां भरते आयें हैं।

अब आप को बड़ी उत्सुकता हो रही होगी कि मैं कौन हूँ। तो जनाब मैं आप ही का दोस्त, भाई या बहन जो कह लो वो हूँ, मेरा नाम आम आदमी है, जो 24 घंटे में से 14 घंटे अपना पसीना बहाकर कुछ पैसे जुटाता है, ताकि उसका परिवार की जीविका [^] अच्छे से चले, उसी जी-तोड़ पसीने की कमाई से कमाये कुछ पैसे सरकार के नाम पर आंख बंद कर के दे देता हुँ, ताकि सरकार हमारा ख्याल रखेगी लेकिन सरकार बहुत ज्यादा मेहरबान होकर मुझे घोटालों का तोहफा दे देती है जिसके तकाजे पर हमें मिलते हैं चव्हाण, कलमाड़ी और राजा के इस्तीफे।

जिनसे केवल सरकार खुश और विपक्ष शांत हो जाता है लेकिन मेरा क्या जो सत्ता के भरे चौराहे पर लुट चुका है और पूरी तरह से राजनीति का कोपभाजन बन चुका है, अब आप बताइये की क्या इस्तीफों की तथाकथित मलहम से मेरा दर्द कम हो सकता है?

Saturday, August 14, 2010

हम आजाद हैं?

साथियों 15 अगस्त गया है, आजादी का दिन जिसे पाने के लिए जानेकितनी मां की गोद सूनी हो गई थी और जाने कितने बच्चे यतीम। शहीदों के बलिदान की वजह से मिली इस आजादी को हम १५ अगस्त के रूप में मनातेहैं। लेकिन एक सवाल हमेशा हमारे जेहन में आता है कि क्या वास्तव में हमआजाद है, क्योंकि आज भले ही हमारे ऊपर अंग्रेजो की बंदिशे नहीं हैं लेकिन रूढ़िवादी परंपराए आज भी सांस लेने में तकलीफ पैदा करती हैं।

भाई-भाई खून के प्यासे
आज हमारे देश में अंग्रेजों का आतंक नहीं लेकिन दो गज जमीन के लिए दो सगे भाई खून के प्यासे हो जाते हैं।कभी कश्मीर की वादियों में फूटते बमों की आवाज तो कभी मणिपुरवासियों की रोती बिलखती आवाजें। कभीतेलंगाना को लेकर मची हाय-तौबा तो कभी गुजरात, बिहार में जातिवाद झगड़ा क्या ये सब हमें आजादी का एहसास कराते हैं। आज भारत को आजाद हुए 63 साल हो चुके हैं। देश अपना 64 वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है।लेकिन जरा गौर फरमाए इन 63 सालों में देश की बुनियादी जरूरते आज भी वहीं है जो आज से 63 साल पहले हुआकरती थी। यानी की रोटी, कपड़ा और मकान।

महंगाई ने कमर तोड़ दी है

ऐसा नहीं है कि देश में अनाज नहीं है, व्यापार नहीं है, सब कुछ है लेकिन दिशा और गति नहीं है क्योंकि कोईमार्गदर्शक नहीं है। आज करोड़ों का गेंहूं सड़ रहा है, वहीं गेंहूं अगले साल सैकड़ो में बिकेगा, क्योंकि हमारे पासस्टोरेज नहीं है। मतलब ये कि किसानों की मेहनत इस बार भी बेकार क्योंकि उम्मीद से ज्यादा की उपज काखरीददार नहीं है और अगले साल भी बेकार क्योंकि ज्यादा पैसा का अनाज कोई खरीदेगा नहीं। यही नहीं देशनवरात्र में मां दुर्गा की पूजा करता है, लेकिन उसी देश का वासी अपनी बेटी या बहन को मौत के हवाले करते उससमय एक पल भी नहीं सोचता जिस समय उसे पता चलता है कि उसकी बेटी या बहन ने अपनी शादी का फैसला खुद कर लिया है। साल भर में हुए ऑनर किलिंग के उदाहरण आपके सामने हैं।
ऑनर किलिंग बन गया है रिवाज
एक बात और आज लोग 15 अगस्त को छुट्टी दिन समझते हैं क्योंकि इस दिन लोगों को अपने ऑफिस से छुट्टीजो मिल जाती है, इस बार के 15 अगस्त से शायद हमारे कुछ साथी निराश हो सकते है कारण इस बार का 15 अगस्त रविवार को जो है यानी की एक छुट्टी खत्म। बच्चों के लिए 15 अगस्त स्कूलों में एक सांस्कृतिक समारोहका परिचायक बन गया है। उन्हें ये तो पता है कि 15 अगस्त क्यों मनाया जाता है क्योंकि किताबों में इसकीपरिभाषा लिखी होती है, स्कूल के टीचर बच्चों को रटवा कर इस बात को याद करा देते हैं। लेकिन क्या ये बच्चे जोकल के भावी नागरिक है उन्हें एहसास है कि देश के लिए 15 अगस्त किसी पूजा या धर्म से कम नहीं है। नहीं होगाक्योंकि उन्हें बताने वाला कोई नहीं है, आज लोग कामयाबी के पीछे भाग रहे हैं काबिलियत के पीछे नहीं।
15 अगस्त मतलब छुट्टी का दिन
आज देश का बच्चा ये कहता है कि मैं इंजीनियर या डॉक्टर बनूंगा लेकिन कोई नहीं कहता कि मैं सच्चा देशभक्तबनूंगा, सब की इच्छा होती है कि कि भगत सिंह पैदा हों लेकिन हमारे घर में नहीं बल्कि पड़ोसी के घर में। लेकिनदोस्तों हम आजाद है, हां हम आजाद है अपने कर्तव्यों से जो हमारा अपने मां-बाप, अपने शिक्षक, अपने समाजऔर अपने देश के प्रति हैं।

आज देश के युवाओं का मकसद गाड़ी, मोटर, बंग्ला है कि देश को गरीबी, आतंकवाद और अशिक्षा से मु्क्तकराना। आज बापू, नेहरू, शास्त्री, पटेल के इस देश में लोग उत्सव मनाते है लेकिन अपनी शादियों का, अपनेजन्मदिन का, अपनी कामयाबी का, भई मनाये भी क्यों , क्योंकि वो आजाद जो ठहरे, देश की कौन सुनता है वोतो कल भी बेबस था और आज भी बेबस है। अंतर सिर्फ इतना है कि कल उसे गुलामी की जंजीरों ने जकड़ा थाआज उसे अपनों की बेरूखी ने जकड़ रखा है।

Saturday, July 31, 2010

हर रिश्ते से बड़ी 'दोस्ती'

दोस्ती वो शब्द जो सिर्फ और सिर्फ चेहरे पर मुस्कान लाती है, दोस्ती वो है जो हर रिश्ते से बड़ी [^] होती है, क्यों सही कहा ना.... दोस्तो, 1अगस्त यानी 'फ्रेंडशिप डे' आ गया है । वैसे तो दोस्ती का कोई दिन नहीं होता क्योंकि ये तो ऐसी खुशी है जो हर दिन हर पल सेलिब्रेट होती है। लेकिन दुनिया है न ..हर दिन को किसी रन किसी रूप में रिश्तों से जोड़ देती है इसलिए उसने 'फ्रेंडशिप डे' को भी बना दिया। दोस्ती में बिना शब्दों के अभिव्यक्तियों से ही बहुत कुछ कहा जाता हैं।
हर रिश्ते से बड़ी 'दोस्ती'

दोस्ती एक ऐसा रिश्ता है जो मामूली घटनाओं और यादों को भी खास बना देता है। हमारे जेहन में ऐसे बहुत से पलों को ताउम्र के लिए कैद कर देता है। जो वापिस तो कभी नहीं आते पर हाँ जब भी आप अपने पुराने दोस्तों से मिलते हैं तो अब उन बातों को याद कर जरूर हँसते होंगे। बेशक आज की 'बिजी लाइफ' के चलते दोस्त रोज मिल नहीं पाते लेकिन दिल से दूर नहीं होते हैं, उनकी रूह, उनकी सांसो में दोस्ती हमेशा साथ होती है।

दोस्ती के लिए कोई दिन तय कर उसे फ्रेंडशिप डे का नाम दे देना कितना सही है यह कहना थोड़ा मुश्किल है। पर इतना जरूर है कि जिस दिन पुराने यार सब मिल बैठ जाएँ उनके लिए वही फ्रेंडशिप डे हो जाता है। दोस्ती को सीमाओं में बांधना बेवहकूफी होती है। किसी जवां लड़के या यंग लड़की के दोस्त साठ साल के बूढ़े भी हो सकते हैं।

दोस्ती आईना है सही-गलत का
एक मां भी अपने बेटे की और एक पिता भी अपनी बेटी के अच्छे दोस्त हो सकते हैं। क्योंकि दोस्त वो बातें बताता है जो किसी क्लास या कोर्स में नहीं पढ़ाई जाती हैं। एक लड़का और एक लड़की जो अपने जीवन के भावी सपनों में खोए होते हैं वो भी अपने हर रिश्ते में पहले एक दोस्त खोजते हैं जानते हैं क्यों? क्योंकि यही वो आईना है जो सच और झूठ का अंतर बताता है।

लेकिन अफसोस इस खूबसूरत रिश्ते और खूबसूरत दिन को देश के कुछ ऐसे लोग [^] जो अपने आप को बेहद ही समझदार समझते हैं, अपने आप को समाज का ठेकेदार कहते हैं,को ये दिन पाश्चात्य सभ्यता का दुष्प्रभाव लगता है। उनका मानना है इससे हमारे युवा भटक रहे हैं, अब ये उन्हें कौन बताये कि भले ही फ्रेंडशिप डे पाश्चात्य सभ्यता की देन है, लेकिन फ्रेंडशिप तो हमारे देश की मिट्टी में हैं। भगवान श्रीकृष्ण-सुदामा की दोस्ती के आगे क्या कोई और मिसाल है, नहीं ना..तो फिऱ इस दिन के लिए हाय तौबा क्यों?.....
दोस्ती पर हाय-तौबा क्यों?

हां अगर उन्हें इस दिन के मनाये जाने के ढंग से एतराज हो तो बेशक उसे दूर करें लेकिन इस दिन को कोस कर, विरोध करके इसकी गरिमा को नष्ट करने का उन्हें कोई अधिकार नहीं हैं।

फिलहाल मेरा तो यही कहना है अपने साथियों से कि वो इस दिन का महत्व समझे, अपने सच्चे मित्रों को पहचाने और इस दिन को बेहद इंज्वाय करे , न जाने ये पल कल नसीब हो न हो। मेरी ओर से भी अपने सभी साथियों को 'हैप्पी फ्रेंडशिप डे'।

Tuesday, July 27, 2010

आया सावन झूम के.....

बदरा छाये कि झूले पड़ गये हाय...कि आया सावन झूम के...जीं हां दोस्तों बीते जमाने की फिल्म आया सावन झूम के...का ये गीत आज भी उतना ही जवां है , जितना की कल था..क्योंकि बात सावन की है....सावन होता है मस्ती भरा, फुहारों भरा, हंसता हुआ और गुदगुदाता हुआ। कवियों और लेखकों ने तो सावनकी तुलना प्रकृति से कर रखी है, सावन को रचना कारों ने वसुंघरा का आंचलकह डाला है।

और शायद ये गलत भी नहीं है क्योंकि सावन में प्रकृति भी अपना मुरझाया और कुम्लाहा चेहरा फेंक कर बारिशकी बूंदो में नहाकर अपने आपको बेहद ही मन मोहक अंदाज में हरियाली चूनर से खुद को सजा लेती है। चारों औरकेवल हरियाली ही हरियाली नजर आती है। नए नए पौधे, नई नई कोंपले, कच्ची कच्ची नजर आती हैं। जेठ की जोतपस और रुखापन था वह दूर हो जाती है। नमी दिखती है, नरमी दिखती है और जीवन को स्पंदन देने वालीखुशहाली दिखती है।

अपनों को करीब लाता है 'सावन'
जिससे साबित होता है कि सावन एक नई शुरुआत का महीना है। खेतों से, सामाजिकता के स्तर पर। नई शुरुआतहोती है इसी माह! जेठ की लू में तपती मरूधरा सावन की बदली से मानों नया जीवन लेती है। बाजरी, ज्वार, ग्वारी, नरमा, कपास, मूंगफली और मोठ आदि खरीफ फसलों की बुवाई इसी महीने के बाद शुरू होती है। इसीलिए तोखरीफ को सावणी कहा जाता है?

जिस तरह सावन में प्रकृति श्रृंगार रचती है और उसी तरह इस महीने में महिलाएं और युवतियां भी तैयार होती है इसलिए तो सावन को नारी का महीना कहा जाता है। स्त्रियाँ हरे परिधान और हरी चूड़ियाँ पहनती हैं। क्योंकि हरारंग समृद्धि का प्रतीक है। शादी के बाद पहला सावन मायके में बिताने आई युवतियों से सखियों की चुहल॥ किसीखेजड़ी, कीकर या रोहिड़े के नीचे झूला झूलती बच्चियों की उम्मीदें इन्ही सब का तो प्रतीक है सावन सोलह श्रृंगारकरके अपनों का इंतजार करते हुए अपनों को और पास ले आता है ...ये सावन... तभी तो रचनाकार देवमणिपाण्डेय ने कहा है
बरसे बदरिया सावन की
रुत है सखी मनभावन की
बालों में सज गया फूलों का गजरा
नैनों से झांक रहा प्रीतभरा कजरा
राह तकूं मैं पिया आवन की
बरसे बदरिया सावन की

चमके बिजुरिया मोरी निंदिया उड़ाए
याद पिया की मोहे पल पल आए
मैं तो दीवानी हुई साजन की
बरसे बदरिया सावन की.....
‍‍ ‍ ‍ ‍‍ ‍

Saturday, June 12, 2010

बस थोड़ा सा रूमानी हो जाएं....

आजकल बैंगलौर में मानसून ने मौसम को बेहद दिलकश बना दिया है, रिमझिम फुहारों ने मौसम के मिजाज में शरारत और प्यार की रंगत भर दी है। बारिश की बूंदो ने सख्त से सख्त दिल को भी झूमने पर मजबूर कर दिया है, प्रकृति ने अपने आँचल से बैंगलोर की वादियो को और भी लुभावना बना दियाहै। ऐसे ही सुंदर दृश्यों को नजारा आप भी करे और रूमानी हो जाए।
परमपिता परमेश्वर ने कितनी हसीन और शानदार दुनिया बनाईं है। मुझे तो हैरत होती है ऐसे लोगो से जो दुनिया को कोसते रहते है, कमियां निकालते रहते है और दुखी रहते है और आसपास के वातावरण को भी बोझिल करते हैं। उनके दुनिया को देखने का तरीका ही ग़लत होता है।.....

ईश्वर ने जो धरोहर हमको सौपी है उसमे बचाए रखने मे प्रकृति प्रेमी ही मददगार होते है, विनाश और विध्वंस के पैरोकार क्या जाने प्रेम और सद्भाव की बातें। प्रकृति तो अपना काम तो बखूबी कर रही है पर हम कहने को तो अपने को बड़ा ही उदारवादी, समझदार, प्रेमी और संवेदनशील मानते हैं पर दरअसल हम है नही ऐसे। किसी अपरिचित से बात करना तो दूर हम उसे एक मुस्कराहट तक नही दे पाते हैं जिसमे हमारा कुछ खर्च नही होता है। हमे अनजाना डर समाया रहता है की न जाने बात करने से या मुस्कुरा देने से वह हमारा नुकसान न कर दे या उसकी हमे कोई मदद न करनी पड़ जाए।....

मेरा यह अनुभव रहा है जब हम किसी से निश्छलता से भावनाओं का आदान प्रदान करते है तो हमे भी उसी प्रकार का व्यवहार मिलता है। इस हिचक के कारण हमने बहुत छोटी छोटी खुशिया खो दी है । क्या हम इस रूमानी और सकारात्मक मन की बात को मानने के लिए तैयार है जैसा हम अक्सर मन ही मन मे कल्पना भी करते हैं और जागती आंखों से एक ख्वाबगाह भी लेते है अपनी कल्पनाओं का, अपनी रूमानियत का, अपने समर्पण का, अपने को निछावर कर देने का। किसी शायर की चंद लाइने शायद मेरे जज्बात को आप तक पहुचाने मदद करें....

क्यों पुतलों सी भरी इस दुनिया में
मिलते नहीं कोई हमसफ़र हमखयाल कागज़ के रिश्ते-रिवाजों से अलग मुझको एक नयी जिंदगानी दे दो... सबसे अलग कोने में पड़े हुए घुटती साँसों को कपड़े में लपेट इस बीते दिन को कल का सूरज
मिल जाए, इतना अब रूमानी दे दो ....

इतनी सारी मेरे मन की बातों को लिखकर मैंने तो अपना ध्येय प्रकट कर ही दिया है, अब बारी है आपकी......

Monday, May 24, 2010

क्या हम मर गए हैं ?

क्या हम मर गए हैं या हमारे अंदर की संवेदनाएं खत्म हो गई हैं, अगर ऐसा हैंतो फिर हमें इंसान कहलाने कोई हक नहीं हैं क्योंकि इंसान तो वो होता हैंजिसके अंदर भावनाएं होती हैं उसे सही गलत का पता होता है लेकिन नहीं हमइंसान नहीं है क्योंकि हमें यही नहीं पता कि सही क्या है और गलत क्या है? आज हमारे चारों ओर अराजकता का माहौल है, हर तरफ मौत का मंजर चलरहा है। हम कितने अजीब है , कहीं बम विस्फोट होता है तो लगते हैं सरकारऔर सिस्टम को कोसने लेकिन खुद जब संगीन गुनाह करते हैं तो उसका समर्थन करते हैं। पिछले एक महीने सेहिन्दुस्तान की मीडिया में इज्जत के नाम पर हत्या का मुद्दा छाया हुआ है।

बात पत्रकार निरूपमा पाठक हत्या कांड की करते है जो सिर्फ इसलिए हुआक्योंकि नीरूपमा अपने घरवालों के खिलाफ किसी गैर जाति के लड़के से प्यारकरती थी लेकिन सवाल ये उठता है कि इस सिस्टम के जन्मदाता कौन हैं? आखिर किससे पूछ कर ये नियम कानून बनाये गए हैं। जब सभी के खून कारंग एक यानी लाल होता है तो फिर जाति का रंग क्यों अलग हो जाता है? जबकोई बीमार होता है और अस्पताल पहुंचता हैं तो डाक्टर तो ये कभी नहीं कहताकि पहले अपनी जाति बताओ तब हम दवाई देंगे। सोचिए अगर अस्पतालों में बैठे डाक्टर ये सवाल करने लगे तोकितने लोगों का इलाज हो पायेगा।
कहने को हम स्वतंत्र देश में रहते हैं जहां हम हर फैसले के लिए आजाद है तो फिर जब हम अपने बारे में फैसलालेते हैं तो उसे कभी धर्म तो कभी जाति तो कभी पैसे के नाम पर तिलांजलि क्यों दे दी जाती है? आखिर क्यों एकअच्छा बेटा या बेटी घरवालों की नजर में उस समय खलनायक या खलनायिका बन जाता हैं जब वो अपनी शादीका फैसला अपने मां-बाप या घरवालों के खिलाफ करता हैं। उस समय कहां चला जाता है उन घरवालों का वो प्यारजो बचपन से जवानी या बचपन से उस समय तक जब तक घरवालों को बच्चो के फैसले के बारे में पता नहीं होता, तब तक उमड़ता रहता है।

आखिर मौत से क्या ऐसे बच्चों के मां-बाप के दिलों को सकून मिल जाता है।बेटे-बेटियों को मौत के घाट उतारने के बाद घरवालों को कोर्ट-कचहरी करनामंजूर होता है लेकिन अपने बच्चों की खुशी मंजूर नहीं होती।
आखिर अगर दोबालिग लोगों ने एक साथ जीवन बीताने का फैसला कर लिया है तो गलत क्याहै लेकिन नहीं हमारे तथाकथित समाज को ये मंजूर नहीं है। हमारे समाज केठेकेदार अपने बच्चों की मर्जी या फैसले की शहनाई और सिंदूर पर नहीं बल्किउनकी हत्या या और खून के रंगे अपने हाथों पर ज्यादा भरोसा करते हैं तभी तो मैनें कहा है कि हम मर चुके हैं, हम इंसान नहीं है, क्योंकि हमारी संवेदनाएं खत्म हो चुकी है। अब आप फैसला कीजिए क्या मै गलत हूं?

Saturday, May 8, 2010

माँ तुझे प्रणाम ...

'मां 'का नाम लेते ही दिल दिमाग पर जो तस्वीर सामने आती है उसके आगेसिर खुद खुद नतमस्तक हो जाता है। वक्त बदला है हमारे आस पास की हरचीज में बदलाव है क्योंकि ये ही समय की मांग है। क्योंकि आज जमाना आगेबढ़ने का है, जो इस बदलते वक्त के साथ आगे नहीं बढ़ेगा वो थम जायेगा, उसकी प्रगति रूक जायेगी।

जाहिर है जब हमारे पास की हर चीज नये रूप में है तो हमारी मां के रूप में भी बदलाव होना स्वाभाविक ही है। जरागौर फरमाइये आज से करीब बीस साल पहले आयी फिल्म
'दीवार' का वो डॉयलॉग जिसमें शशि कपूर अपने बड़ेभाई अमिताभ को ये कहकर चुप करा देते हैं कि उनके पास मां हैं और उसकी कीमत नहीं लगायी जा सकती हैं।

तब से आज तक ढेरों हिन्दी फिल्मों में मां को कई रूपों में पेश किया गया है, कभी वो लोरियों के रूप में ममता कीमूरत बन कर सामने आती है तो कभी अपने बच्चों को सबक सीखाने के लिए हथियार उठाती है।
'वास्तव' और 'मदर इंडिया' जैसी फिल्में इसकी साक्ष्य हैं। जिनके आगे पूरा सिनेमा जगत आज भी सजदा करता है। 'करन अर्जुन' की मां हो या 'सोल्जर' की मां दोनों ही फिल्में मां की एक नई परिभाषा गढ़तीं हैं। इस परिभाषा में हमेंत्याग, समर्पण और प्यार का अनूठा मेल देखने को मिलता है।

ये तो बड़े पर्दे की बातें हैं अब थोड़ा छोटे पर्दे की ओर चलते हैं, जहां इन दिनों डेली सोप की बाढ़ आयी हुई हैं। कोई भीचैनल खोलिए जहां सीरियल चल रहे हों वहां आपको एक नई मां देखने को मिलेगी। चाहे वो स्टार प्लस का
'बिदाई ' धारावाहिक हो या फिर इमेजिन का 'ज्योती' या 'दो हंसो का जोड़ा' हर सीरियल मां को एक नये रूप में पेशकरता है। इन कहानियों में आपको कहीं मां आदर्श रिश्तों की दुहाई देती दिखती हैं तो कहीं छल-कपट की सारी हदोंको पार करते भी दिखतीं हैं।

ये तो किस्से कहानियों की बातें हैं अब जरा एड जगत का जिक्र करते हैं जो मां के हाथों हर चीज बिकवा देता है।पारंपरिक मां की सबसे ज्यादा मनपसंद जगह घर की रसोई होती हैं इस लिए विज्ञापन जगत ने वहीं से शुरूआतकरना उचित समझा। विज्ञापन वालों ने मसाले, अचार, पापड़, तेल, सर्फ ये सभी कुछ मां के हाथों से जमकरबिकवाया ही साथ ही वहीं मां के हाथों शैंपू, टूथपेस्ट, कपड़े, मोबाइल फोनों की भी जमकर बिक्री करवाई। क्योंकिमां तो कभी झूठ नहीं बोलती इसलिए लोगों ने जमकर इन चीजों की खरीददारी की। चाहे इंश्योरेंस पॉलिसी हो याबच्चों की डाइपर हर जगह मां सटिक बैठती हैं

मां की पब्लिसिटी का आलम ये है कि आज की फिल्मी अभिनेत्रियां भी विज्ञापन में मां बनने से परहेज नहीं करतीहैं। चाहे वो हरदिल अजीज
'काजोल' हों जो ये कहते सुनी जाती हैं कि 'मां बनते ही कितना कुछ बदल जाता है जैसेआपका फेवरिट टीवी चैनल' या चुलवुली 'जूही' का 'कुरकुरे' का एड जो कहती हैं पंजाबी कुरकुरे में मां और पंजाबकी मिट्टी की खुशबू है। कारण सिर्फ एक है और वो ये कि मां कभी झूठ नहीं बोलती वो ईमानदार होती है इसी बातको विज्ञापन जगत ने खूब कैश कराया है और आज भी बदस्तूर कराता जा रहा है।

ये पूरी बातें ये साबित करती हैं कि मां सर्वोपरी है उसकी बराबरी कोई नहीं कर सकता है। क्योंकि मां -बच्चे सेबढ़कर कोई रिश्ता नहीं है, क्योंकि मां स्वार्थी नहीं होती। वो तो काली होती हैं और गोरी वो तो बस मां होती है।चाहे दुनिया कितनी बदल जाये ये रिश्ता कभी नहीं बदल सकता है, क्योंकि मां की ममता कभी नहीं बदलती।
मदर्स डे के शुभ मौके पर दुनिया की समस्त मांओ को शत शत प्रणाम ....

Wednesday, March 24, 2010

ये चंद सेकंड....



सुबह सवा नौ बजते ही ....बंगलोर का सिल्क बोर्ड चौराहा ......हमेशा की तरह बहुत व्यस्त जाता है ...रोजाना सैकड़ो की संख्या मैं मौजूद लोग अपनी सवारियों के साथ अपनी मंजिलो की तलाश में निकल पड़ते है.....की अचानक चौराहे के ट्रेफिक सिग्नल परलाल बत्ती का इशारा हो जाता है ...और चंद समय के लिए सही ....सारे वाहनों के पहिये थमजाते है.....लेकिन ये चंद सेकंड ही बहुत कुछ कह जाते है......इन्ही चंद सेकंडो में कोई लैपटाप पर अपना प्रोजेक्ट पूराकरता दिखता है ..तो कोई फ़ोन पर अपनी सारी गलतियों की भरपाईकरता दिखता है ...तो कोई इन्ही चंद सेकेंडो मे अपने खोते और रूठेरिश्तों को बचाने और मनाने की कोशिश करता दिखता है.....तो कोईइन्ही चंद सेकेंडो ...में अपने आने वाले वीकेंड का पूरा प्रोग्राम बनातादिखता हैं.....अपने -अपने कामो में व्यस्त लोगों के पास इतना वक़्त नहीं होता की वो ये देखे की उनके बगल कौन खड़ा है.....इन मोटर औरबाइक सवारों के बीच कुछ मासूम परछाइयाँ ...भी दौड़ती भागती दिखतीहैं...जिन्हें आप स्ट्रीट भिखारी या सेलर कहते हैं...जो महज दस से पंद्रहसाल से अधिक के नहीं होते हैं....जो इन्ही चंद सेकंडों में गाड़ी के शीशोंको साफ़ करके अपनी शाम की रोटी का इंतजाम करते दिखते हैं....याछोटे -छोटे घरेलू सामान बेचते हैं....कहीं तो इन्हें पैसे मिल जाते हैं औरकहीं लोगों की बेरुखी से भी इन्हें दो-चार होना पड़ता है....इन्ही चंद सेकंड में ऑटो के अन्दर बैठे स्टुडेंट अपने अधूरे होमवर्क या अपनीप्रॉब्लम को सोल्व करते दिखते हैं...तो यही चंद सेकंड कार मै बैठी महिलाओं के मेकअप का टाइम होता हैं....जो अपना जोग्राफिया ठीककरने की कोशिश करती हैं..क्योंकि अपने बच्चों के चक्कर में इनबेचारियों को मौका ही नहीं मिल पाता है ...अपना हुलिया सही करनेका...इन्ही चंद सेकेंडो में कुछ नौजवान दोस्त सुन्दर कन्याओं को अपनाइंट्रो दे कर के अपनी सेटिंग करने से भी बाज नहीं आते....इन्ही चंद सेकेंडो में कुछ भद्र पुरुष अपने आधिन लोगों को राजनीति और दुनियादारी की सारे पैतरे भी सिखा डालते है...हैं ना....कमाल का यह चंद सेकंड. ये नज़ारा केवल बंगलोर का ही नहीं देश के हर बड़े शहर काहै....ज़िन्दगी आज कितनी फास्ट हो गयी है...इसका अंदाजा लगाना बेहद मुश्किल हो गया है...हम मशीनी युग में जी रहे हैं..या य़ू कहे कि लगभग मशीन हो चुके हैं...लगभग इसलिए कहा कि अभी थोड़ीगुंजाइश बाकी है.. .आदमी का मशीन बनने में.....आज हर कोई भागता ही दिखता हैं....कोई मंजिल की तलाश में दौड़ रहा हैं..तो कोई अपनीमंजिल बचाने के लिए भाग रहा हैं...और कोई इसलिए भाग रहाहै..क्योंकि सब भाग रहे हैं...लेकिन सवाल यह है कि क्या सच में इतनी भाग दौड़ जरुरी हैं... क्योंकि इस दौड़ का कोई अंत नहीं हैं...दिन तो २४घंटे का ही होता है ना.....जिसमें हर वो इंसान जो लगभग मशीन बनचुका है..वो १५ से १८ घंटे काम करता है...जिसके बाद हमे अधिक कहने कि कुछ जरुरत नहीं ..आप खुद हिसाब लगा सकते हैं कि इसके बाद इंसान के पास बचता ही क्या है ..ले दे कर यही चंद सेकंड..अब वो चाहेसालाना लाखों रूपए कमाने वाला पढ़ा लिखा काबिल इंसान हो या..दो जून कि रोटी के लिए चौराहों पर सामान बेचते या भीख मांगते मासूमबच्चे. ..हर कोई जुटा है बस कमाने में....कहीं तो इसके पीछे मज़बूरी है. तो कहीं है.. अधिक पैसे कमाने कि जिद ....कहीं इसके पीछे रातों-रात कुबेर का खजाना पाने की चाहत है तो कहीं पेट भरने कि मजबूरी....आजलोगों कि सोच ये बन गयी है कि अभी तो वक़्त है ...हम मेहनत करसकते हैं ताकि भविष्य को सुरक्षित कर सके...इसीलिए लोग वर्तमान को भूल कर जुटे पड़े है काम करने में...लेकिन कोई इन्ही से पूछे कि अरेभाई.... भविष्य तो तभी बनेगा ...जब आप का आज होगा ..और आज के लिए आप को अपने पर थोडा वक़्त देना होगा.....जो आप के पास है हीनहीं ..ले दे कर बस यही है चंद सेकंड....वो भी किसी ट्रेफिकसिग्नल की मेहरबानी से....खैर...यह तो हुई वो बात जो मैंने आप से कही...अब आपबताइए कि आप अपने आने वाले चंद सेकंड में क्या करने जा रहे...मेरी कही बातों पर हँसने या अपने या अपनों के बारे में सोचने..

Thursday, March 18, 2010


हनी पदाई में बहुत अच्छा है.उसे घर पर किसी टीचर की कोई जरुरत नहीं...लेकिन उसकी मम्मी ने जिद कर के उसके लिए घर पर टीचर का इंतजाम किया है... दलील ऐसी की आप भी सुने तो हैरान रह जाएँ...हनी की मम्मी का कहना है कि ....हनी के पापा ऊँची पोस्ट पर हैं...अच्छा-खासा कमाते हैं... आखिर लोग सुनेगें तो क्या कहेंगे यही ना ...कि क्या करेंगे इतने पैसे का..जब अपने बच्चे को ट्यूशन ही नहीं लगवा सकते.......





ऐसा ही कुछ हमारे घर के बगल रहने वाले खन्ना साहब का हाल हैं...जनाब ने नया मकान ख़रीदा है...बेडरूम काआकार ठीक -ठाक था...लेकिन जनाब अपनी हेकड़ी में खरीद लाये किंग साइज़ बेड..क्योकिं उनके जूनियर के घरपर किंग साइज़ बेड था ..... यह बात औरहैं कि अब उनके बेडरूम में चलना -फिरना भी दूभर हैं...पूछने पर जवाब वो ही एक कि आखिर लोग क्या कहते .....कि इनके पास अपने जूनियर से घटिया सामान है










लेकिन इन सब में बाजी मारी श्रीमती खरे ने...जिन्होंने हाल ही में अपनी बेटी की शादी की है... लड़का विदेश में हैं ..उनकी बेटी को भी शादी के बाद वही जाना था....लड़की के ससुरालवालों का साफ़ कहना था कि ..लड़की को शादी में केवल जरुरत भर का सामान दिया जाये..कपड़ो पर ज्यादा पैसा खर्चा न किया जाये। लेकिन मिसेज खरे .. कहाँ मानने वाली थी..ले आयीं बाज़ार से २१ साड़ियाँ .....क्योंकि उनकी ननंद ने अपनी बेटी को इतनी ही साड़ियाँ उसकी शादी में दी थी..तो भला लोग भाभी का नंनद के सामने मजाक नहीं उड़ाते ...लोग कुछ न कहें .इसलिए
मिसेज खरे ने फालतू में लाखों का खर्चा कर डाला...यह बात और हैं कि उनकी बेटी एक भी साड़ी अपने साथ ले नहीं गयी ....लेकिन हाँ लोगों कि जुबान खामोश हैं...और लोग कुछ नहीं कह रहें हैं...ऐसा उनका यानी श्रीमती खरे का मानना हैं ....

लोग क्या कहेंगे ? का सिलसिला अंतहीन हैं ...समाज इस संक्रामक बीमारी से बुरी तरह ग्रसित हैं... आपको जानकर हैरानी होगी ही हमारे समाज में 80 प्रतिशत लोगों के झगड़े और परेशानी का कारण...लोग क्या कहते हैं या लोग क्या कहेंगे ....हैं.....
समाज और परिवारों के बीच बहुत ही खुबसूरत और महत्त्वपूर्ण रिश्ता होता है...जैसे परिवार में घर का बड़ा सारे फैसले लेता हैं ..अपने से छोटों को गलत-सही कि राह दिखता हैं ..घर में शांति और खुशनुमा वातावरण बना रहे इसलिए वो कभी -कभी रुखा व्यवहार भी अपनाता हैं...परिवार ही आगे चलकर समाज को जन्म देते हैं...परिवार के सुख -दुःख में समाज ही सच्चा साथी बनकर साथ निभाता हैं..लेकिन कभी-कभी ये पूरा सिस्टम गड़बड़ा जाता है..जिसके दो कारण हैं..पहला तो ये की कोई परिवार समाज को दर किनार कर के अपने नियम खुद बना लेता हैं..जिन पर चर्चा फिर कभी होगी ...दूसरा कारण ये कि ....कभी कभी समाज गाईड ....की जगह... दारोगा ....बन जाता हैं.जो बिना कारण लोगों पर फब्तियां कसने से बाज नहीं आता....रीति-रिवाजो का बना फंदा परिवार का गला घोंटने लगता है ..ऐसे हालात में "लोग क्या कहेंगे?" की बीमारी जड़ पकड़ कर फलने फूलने लगती हैं...महिलाएं इस रोग की ज्यादा शिकार होती हैं..जिसके चलते हैसियत से ज्यादा खर्च कर जाती हैं...लेकिन क्या वाकई में लोग दिखावे से प्रभावित होते हैं ? शायद नहीं ....क्योंकि लोग अगर कहना छोड़ देंगें तो उनका खाना कैसे पचेगा ?इसलिए मेरी लोगों से विनती हैं की वो अपने खर्च अपने अनुसार करें ना कि लोगों के मुताबिक...कल्याण इसी में हैं कि अपनी सीमायें समझ कर खर्चा पानी करें ..और दिखावे की जनता को नमस्कार करें......
लेकिन मै आप को नमस्कार करने से पहले एक रोचक किस्सा जरुर बताना चाहूंगी.... जिसके बिना मेरी पूरी बात अधूरी है.....हुआ यूँ कि मेरी कालोनी में एक मिस्टर सिंह रहते हैं..... जिनकी आदत ही है लोगों कि कमी निकालना ..शायद ऐसा करने से ही उनका खाना पचता है...कालोनी में नए आये मिस्टर अग्रवाल ..जिन्होंने अपना गृह-प्रवेश का प्रोग्राम रखा और दावा किया कि मिस्टर सिंह को उनकी आदत से तौबा करवा कर दम लेंगें..बेतहाशा खर्च किया...पानी कि तरह पैसा बहाया...नतीजा भी यह हुआ कि लोग वाह-वाह कर उठे...सबसे बड़ी बात हैं कि मिस्टर सिंह ने भी कह दिया क्या अग्रवाल साहब क्या पार्टी दी हैं... लेकिन क्या आप को नहीं लगता कि आप ने छोटे से काम के लिए बहुत ज्यादा खर्चा कर दिया है.....क्या यह पागलपन नहीं हैं.???..अब मिस्टर अग्रवाल को काटो तो खून नहीं...बेचारे पैसे खर्च कर भी लोगों कि बातें सुन रहे थे....
खैर सच्चाई यही है मेरे दोस्त.....
चाहे अच्छा करो या बुरा ....लोग तो कहेंगे ही....
क्योंकि
उनका तो काम ही है कहना ....